रविवार, 31 जुलाई 2011

तब और अब

वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ, जिसको हमने अपनाया है।
अपनी संस्कृति को त्याग-त्याग, फिर गीत उन्हीं का गाया है।।

चाय काफिया काफी को, छोड़ा उन लोगो ने लाकर।
हमने फिर ग्रहण किया उसको, उनका सहयोग सदा पाकर।
अमृत सम दुग्ध धरित्री से, जाने का गीत सुनाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।1।।

पहले कपड़े सम्पूर्ण अंग को, भर शृंगार कर देता था।
जब अंगराग से पूरित तन, मन में उमंग भर देता था।
मृदु महक धरा से दूर हुयी, परफ्यूम ने धूम मचाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।2।।

जनक पिता बापू कहते, सन्तोष बहुत मिल जाता था।
भैया चाचा दीदी बेटी, सुनने से दिल खिल जाता था।
पापा कहने से मिटा लिपिस्टिक जब, डैडी का चलन बढ़ाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।3।।

धोती कुर्ता रमणीय वेष, खद्दर की टोपी दूर हुयी।
डिस्को क्लब सिगरेट चषक, की भार बहुत भरपूर हुयी।
कटपीस के कटे ब्लाउज ने, भारत में आग लगाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।4।।

बच्चा पैदा होते ही अब, अंग्रेजी मे ही रोता है।
ए बी सी डी को सीख सीख, हिन्दी की गति को खोता है।
सब छोड़ संस्कृति देवों की, दानव प्रवृत्ति अपनाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।5।।

थे राम कृष्ण अवतार लिये, यह बात बताया भारत में।
चैत्र मास से ऋषियों ने, नव वर्ष चलाया भारत में।
चले गये अंग्रेज मगर, अंग्रेजी नव वर्ष मनाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।6।।

काल खोलकर मुँह बैठा, पर हैप्पी बर्थ मनाते है।
मन मन्दिर में जो प्रेम छिपा, आई लव यू कह कर गाते है।
सम्पूर्ण नग्नता छाने को, यह पाँप का म्यूजिक आया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।7।।

अपनी संस्कृति को त्याग-त्याग, फिर गीत उन्हीं का गाया है।

अपनी संस्कृति को त्याग-त्याग, फिर गीत उन्हीं का गाया है।
महेन्‍द्र प्रताप पाण्‍डेय 'नन्‍द'-

वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ, जिसको हमने अपनाया है।
अपनी संस्कृति को त्याग-त्याग, फिर गीत उन्हीं का गाया है।।

चाय काफिया काफी को, छोड़ा उन लोगो ने लाकर।
हमने फिर ग्रहण किया उसको, उनका सहयोग सदा पाकर।
अमृत सम दुग्ध धरित्री से, जाने का गीत सुनाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।1।।

पहले कपड़े सम्पूर्ण अंग को, भर शृंगार कर देता था।
जब अंगराग से पूरित तन, मन में उमंग भर देता था।
मृदु महक धरा से दूर हुयी, परफ्यूम ने धूम मचाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।2।।

जनक पिता बापू कहते, सन्तोष बहुत मिल जाता था।
भैया चाचा दीदी बेटी, सुनने से दिल खिल जाता था।
पापा कहने से मिटा लिपिस्टिक जब, डैडी का चलन बढ़ाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।3।।

धोती कुर्ता रमणीय वेष, खद्दर की टोपी दूर हुयी।
डिस्को क्लब सिगरेट चषक, की भार बहुत भरपूर हुयी।
कटपीस के कटे ब्लाउज ने, भारत में आग लगाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।4।।

बच्चा पैदा होते ही अब, अंग्रेजी मे ही रोता है।
ए बी सी डी को सीख सीख, हिन्दी की गति को खोता है।
सब छोड़ संस्कृति देवों की, दानव प्रवृत्ति अपनाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।5।।

थे राम कृष्ण अवतार लिये, यह बात बताया भारत में।
चैत्र मास से ऋषियों ने, नव वर्ष चलाया भारत में।
चले गये अंग्रेज मगर, अंग्रेजी नव वर्ष मनाया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।6।।

काल खोलकर मुँह बैठा, पर हैप्पी बर्थ मनाते है।
मन मन्दिर में जो प्रेम छिपा, आई लव यू कह कर गाते है।
सम्पूर्ण नग्नता छाने को, यह पाँप का म्यूजिक आया है।।
वो चले गये कुछ छोड़ यहॉ जिसको हमने अपनाया है।।7।।

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

खिचड़ी


मकर संक्राति को पूर्वी उत्तर प्रदेश में खिचड़ी के नाम से जाना जाता है। इस दिन का महत्व आध्यात्मिक एवं पौराणिक रुप में बहुत ज्यादे हैं। गुरु गोरखनाथ का मंदिर गोरखपुर में खिचड़ी पर्व को बहुत सुशोभित हो जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ की खिचड़ी गोरखपुर में ही पक पायी थी। इस खिचड़ी पर्व पर पहले की सामाजिक व्यवस्था और आज की व्यवस्था में काफी फर्क है। आज के भौतिकवादी युग में जहाँ अर्थ की महिमा हर जगह दिखायी देती है। वहीं पूर्व में (आज से 20वर्ष पूर्व) सहयोग प्रेम सहिष्णुता दया परोपकार की भावना दिखायी देती थी। मुझे याद है वह दिन जिस समय खिचड़ी का त्यौहार आने से दस पन्द्रह दिन पहले चूड़ा, चावल, मक्के इत्यादि को भुनाने के लिये झींगुर गोंड़ के यहाँ जाना पड़ता। झींगुर के परिवार के विनष्ट हो जाने के बाद प्रानपुर गांव के गोड़ों ने कुछ वर्षों तक यह परम्परा निबाही। बाद में कन्ता भाई की औरत का अपना चूल्हा कुछ दिनों तक चलता रहा। भुने हुये अनाज को भूजा भी कहा जाता है। भूजा भून लेने के एवज में चूल्हा के मालिक को भूजा ही देना होता। कइयों का भूजा तो किसी विशेष कमी के कारण सही नही हो पाता जिस पर अन्धविश्वासवश लोग कहते कि नजर लग गयी है। अनुमान लगाये जाते कि फलां की औरत ने आते समय टोक दिया था, फलां की औरत ने मुझसंे ऐसा कहा था कि आदि-आदि बातें सिद्ध ही कर देती। जादू टोना चुड़ैल की बाते उस समय ज्यादे थी। यह समय भी बीता। अब ऐसे चूल्हे सामूहिक तौर पर नहीं बनाये जाते। हर घरों का अपना चूल्हा हो गया है। शीतलहरी आज पहले से भी अधिक हो रही है। गन्ने के गेंड़, पुआल और पत्ती खिचड़ी के दिन तक सूख नहीं पाती। खोइयाँ अब नहीं मिलता। लाई (लड्डू ) बनाने के लिये अब उतना भूजा नहीं भुना जाता जितना पहले। पहले की सामाजिक व्यवस्था के बारे में अगर बात करें तों लोगों को कहानी या मनगढ़न्त बात लगेगी। 1970 के आस पास जब मै होश संभाला चुका था। उस समय ब्राह्मण में दुर्गा मिश्र के खानदान के लोग या खुद दुर्गा मिश्र ब्राह्मण घराने के लिए जनेऊ लाते। वहीं सुदामा हजाम या उनके पूर्ववर्ती खानदान के रामनाथ हजाम या गनपत हर घरों में दातुन पहुंचाने का काम करते थे। दातुन नीम या महुआ के छुआ करते थे। कुम्हारों में रतनपुरा गांव के कुछ कुम्हार मिट्टी के बरतनो को दो तीन दिन पहले पहुंचा देते थे। खिचड़ी पर्व पर मिट्टी के बरतनों में लड्डू, चावल, अदरक, तील, नीबू, नमक रखकर स्नानोपरान्त दान किया जाता और पंडित जी के घर के लोग सायंकाल उसे ले जाने के लिये आते। दोपहर बाद कुम्हार, हजाम के घर के लोग लाई (लड्डू) लेने के लिये आते और पूरे गाँव से संग्रह कर बोरों में भर कर ले जाते। करीब 10 बजे से भिखमंगे, भंगते भी दरवाजों पर आने लगते। दिन में दही के साथ कुछ घरों में चिउड़ा या भुने हुये अनाज के गुड़ में बने हुये लड्डू खाया जाता। इतना ही बहनों के घर भी इन लड्डुओं को पहुंचाया जाता। गांव में कुछ यादव घराने और कमकर घराने से ब्राह्मण भोज का निमंत्रण आता। बाबूराम मिस्त्री के घर तो करीब 2000 सन् तक यह परम्परा चलती रही। हमारे दादाजी या चाचाजी (हरवंश) या उनके पिता चन्द्र गोकुल जी यजमानों के यहाँ खिचड़ी बनाने में सिद्ध हस्त थे। खिचड़ी बनवाने वाले ब्राह्मण घरानें में आकर सवेरे ही निमंत्रण दे जाते और बनाने वाले को समय से आ जाने की बात भी कह जाते। एक बार मुझे बालगोविन्द कमकर के यहाँ खिचड़ी बनाने के लिये आना पड़ा। याद है जब मै पहुंचा चावल, दाल, आलू तथा फूलगोभी कटा हुआ, नमक मिर्चा मशाला, तेल, सूखी लकड़ी, मिट्टी के बरतन मुझे सौंप दिये गये। समस्या यह थी कि पहले खिचड़ी बनाऊँ या सब्जी। सब्जी बनाने का दृढ़ निश्चय लेकर कार्य प्रारम्भ कर दिया। तेल कम था, मांगने पर घर वालों ने थोड़ी बहाने बाजी दिखानी शुरु की। चूल्हा धुँआ छोड़ रहा था। आँखे फूंक लगाने से लाल हो गयी। क्या करता, ब्राह्मण होने के नाते अपने बनाना ही था नहीं तो दूसरों के हाथ का बनाया अन्य ब्राह्मण नहीं खाते। मदद की कोई संभावना नहीं थी। खूब बढ़िया दहीं और घी भी भोजन के साथ खाने को दिखाई दे रहा था। जैसे तैसे सब्जी बन गयी। नमक कम ही था। अब खिचड़ी बनाने की बारी आई। माताजी ने बहुत समझाया था कि ऐसे ऐसे खिचड़ी बन जायेगी। मैने माताजी का स्मरण कर खिंचड़ी बना ही डाला। माताजी की कृपा से खिचड़ी भी ठीक बनी। जब थोड़ा सा समय बाकी था तभी चिरकुट को अन्य ब्राह्मणों को बुलाने के लिये भेज दिया गया। सभी ब्राह्मण और ब्राह्मण पुत्र अपना-अपना लोटा लेकर आ गये। भोजन की पंक्ति बैठ गयी। बुजुर्ग ब्राह्मणों ने अपना कुर्ता बनियान निकाल लिया। घी दही को भरपूर लेकर भोजन प्रारम्भ हो गया। यजमान ने नकद में 2-2 रुपये सामने रख दिये। पंडित जी प्रसन्न थे। यजमान खिलाकार संतुष्ट। मिट्टी के बरतन में दो दो बड़े बड़े भुने हुये अन्न के लड्डू तथा दान किया हुआ चावल आलू गोभी सबको पाँव छूकर यजमान द्वारा दिया गया। आज समय बदल गया है। ब्राह्मण अब सिले हुये कपड़े ही नहीं बल्कि जूता पहने हुये भोजन (बफर सिस्टम) कसे में भी संकोच नहीं करता। खिचड़ी का पर्व तो आता है पर न तो हजाम दातुन लाता, कुम्हार बरतन और गोंड़ो के यहाँ चूल्हा भी नहीं होता। कन फुंकवा शिष्य कभी कभी गुरुजी को अपने घर खिंचड़ी बनाने के लिये बुलाते पर वह मिठास नही होती। घी पराग और आंचल का होता। दही का नामोनिशान नहीं। हाथ का पिसा मशाला नही होता, कम्पनी का बना मिक्स पैकेट से काम चलाना पड़ता। पैर छूकर आर्शीवाद लेने से शरम आती। यजमान शाम को मदिरालय को गया रहता है। शाम को अब खिचड़ी नहीं बनती। रचनाकार डाॅ. महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ’नन्द’ रा. इ. का. द्वाराहाट अल्मोड़ाउत्तराखण्ड